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3 अप्रैल 2010

साँस जाने बोझ कैसे...

साँस जाने बोझ कैसे जीवन का ढोती रही
नयन बिन अश्रु रहे पर ज़िन्दगी रोती रही।

एक नाज़ुक ख्वाब का अन्जाम कुछ ऐसा हुआ
मैं तड़पता रहा इधर वो उस तरफ रोती रही।

भूख , आँसू और गम़ ने उम्र तक पीछा किया
मेहनत के रूख़ पर ज़र्दियाँ , तन पे फटी धोती रही।

उस महल के बिस्तरे पर सोते रहे कुत्ते बिल्लियाँ
धूप में पिछवाड़े एक बच्ची छोटी सोती रही।

आज तो उस माँ ने जैसे तैसे बच्चे सुला दिये
कल की फ़िक्र पर रात भर दामन भिगोती रही।

तंग आकर मुफ़लिसी से खुदखुशी कर ली मगर
दो गज़ कफ़न को लाश उसकी बाट जोहती रही।

`जितमोहन’ बशर की ख्वाहिशों का कद इतना बढ़ गया
ख्व़ाहिशों की भीड़ में कहीं ज़िन्दगी रोती रही।

1 Post a Comment:

बेनामी,  10 नवंबर 2011 को 3:53 pm बजे  

ye to meri kahani h thanxxxx dear meri kahani ko kavita banane k liye

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