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5 अप्रैल 2010

ज़िंदगी अभिशाप भी...

ज़िंदगी अभिशाप भी, वरदान भी
ज़िंदगी दुख में पला अरमान भी
कर्ज़ साँसों का चुकाती जा रही
ज़िंदगी है मौत पर अहसान भी

वे जिन्हें सर पर उठाया वक्त ने
भावना की अनसुनी आवाज़ थे
बादलों में घर बसाने के लिए
चंद तिनके ले उड़े परवाज़ थे
दब गए इतिहास के पन्नों तले
तितलियों के पंख, नन्हीं जान भी

कौन करता याद अब उस दौर को
जब ग़रीबी भी कटी आराम से
गर्दिशों की मार को सहते हुए
लोग रिश्ता जोड़ बैठे राम से
राजसुख से प्रिय जिन्हें वनवास था
किस तरह के थे यहाँ इंसान भी।

आज सब कुछ है मगर हासिल नहीं
हर थकन के बाद मीठी नींद अब
हर कदम पर बोलियों की बेड़ियाँ
ज़िंदगी घुडदौड़ की मानिंद अब
आँख में आँसू नहीं काजल नहीं
होठ पर दिखती न वह मुस्कान भी।

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